पुष्प क्रमांक ९ (पहला भाग)

महाकवी कालिदास

(आषाढस्य प्रथम दिवसे!)     

प्रिय पाठकगण,

आप सबको मेरा सादर प्रणिपात!

    आषाढ मास के प्रथम दिन मनाये गए कालिदासदिन के उपलक्ष में यह लेख प्रस्तुत कर रही हूँ ! कालिदासजी संस्कृत भाषा के महान सर्वश्रेष्ठ कवी तथा नाटककार! दूसरी-पांचवी सदी में गुप्त साम्राज्यकालींन अनुपमेय साहित्यकार के रूप में उन्हें गौरवान्वित किया गया है| उनकी काव्यप्रतिभा के अनुरूप उन्हें दी गई “कविकुलगुरु” यह उपाधी स्वयं ही अलंकृत तथा धन्य हो गयी है! संस्कृत साहित्य की रत्नमाला में उनका साहित्य उस माला के मध्यभाग में दमकते कौस्तुभ मणी जैसा प्रतीत होता है| पाश्चात्य और भारतीय, प्राचीन तथा अर्वाचीन विद्वानों के मतानुसार कालिदासजी जगन्मान्य, सर्वश्रेष्ठ और एकमेवाद्वितीय ऐसे कवि हैं! इस साक्षात् सरस्वतीपुत्र के बहुमुखी व बहुआयामी प्रज्ञा, प्रतिभा और मेधावी व्यक्तिमत्व का मैं नाचीज़ एक मुख से बखान करूँ तो कैसे करूँ, वास्तव में उनके चरणों में चरणी लीन होते हुए ही मैं ये शब्दभावसुमन उन्हें अर्पण करने का साहस कर रही हूँ! 

     ज्ञानी पाठकगणों, आप इसमें कवि कालिदासजी के प्रति मेरी केवल और केवल श्रद्धा ही ध्यान में रक्खें। अन्यथा एक घोंघा या कीड़ा हिमालय को घेरा डालने का स्वप्न तक देखेंगे क्या? या फिर एक छोटीसी मछली सप्तसागरों की प्रदक्षिणा करने का साहस कैसे करेगी? मात्र मेरा मर्यादित शब्दभांडार, भावविश्व तथा संस्कृत भाषा का अज्ञान, इन सारे व्यवधानों को पार करते हुए मैंने यह लेख लिखने का फैसला कर लिया| मित्रों, मुझे संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैंने कालिदासजी के साहित्य का मराठी में किया अनुवाद (अनुसृष्टी) पढ़ा! उसी से मैं इतनी अभिभूत हो उठी| मेरी साहित्य की पढाई सीमित है और यह लेख मैंने पाठक की भूमिका में रसपान का आनंद लेने के हेतु से ही लिखा है, न कि कालिदासजी के महान साहित्य के मूल्यांकन के लिए!     

      इन कविराज के अत्युच्य श्रेणी के साहित्य का मूल्यमापन संख्यात्मक न करते हुए गुणात्मक तरीके से ही करना होगा। राष्ट्रीय चेतना का स्वर जगाने का महान कार्य करने वाले इस कवि का राष्ट्रीय नहीं बल्कि विश्वात्मक कवि के रूप में ही गौरव करना चाहिए! अत्यंत विद्वान के रूप में गिने जाने वाले उनके समकालीन साहित्यकारोंने (उदाहरण दूँ तो बाणभट्ट) ही नहीं, बल्कि आज दुनियाभर के लेखकों ने भी वह किया है! उनकी जीवनी के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है (अगले भाग में इस विषय का विस्तार से विवेचन सादर करूंगी)| उनके नाम से जुडी अंदाजन ३० साहित्य निर्मितियों में ७ साहित्यकृतियां निश्चित रूप से उन्हींकी हैं यह मान्यता है| ऐसी क्या विशेषता है कालिदासजी के सप्तचिरंजीवी साहित्य अपत्यों में, कि पाश्चात्य साहित्यिकों ने कालिदास का नामकरण “भारत का शेक्सपियर” ऐसा किया है! मैं तो दृढ़तापूर्वक ऐसा मानती हूँ कि, इसमें गौरव कालिदासजी का है ही नहीं, क्यों कि वे सर्वकालीन, सर्वव्यापी तथा सर्वगुणातीत ऐसे अत्युच्य गौरवशिखर पर पहलेसे ही आसीन हैं, इसमें यथार्थ गौरव है शेक्सपिअर का, सोचिये उसकी तुलना किसके साथ की जा रही है, तो कालिदासजी से!    

     इस महान रचयिता के जीवन के बारे में जानना है तो उनके साहित्य का पठन, ध्यान और चिंतन करना होगा, वह भी बारम्बार, क्योंकि उनके जीवन के बहुतसे प्रसंग उनकी साहित्यकृतियों में उतरे हैं, ऐसी मान्यता है| उदाहरण के तौर पर खंडकाव्य मेघदूत, विरह के शाश्वत, सुंदर तथा जीवन्त रूप में इस काव्य को देखा जाता है, बहुतसे विशेषज्ञों का मानना ​​​​है कि कल्पना के उच्चतम मानकों का ध्यान रखते हुए भी, बिना अनुभव के इस कल्पनाशील दूतकाव्य कविता की रचना करना बिलकुल असंभव है। साथ ही कालिदासजी ने जिन विभिन्न स्थानों और उनके शहरों का सटीक तथा विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, वह भी तब तक संभव नहीं है जब तक कि उन स्थानों पर उनका वास्तव्य नहीं रहा होगा! कालिदासजी की सप्त कृतियों ने समूचे विश्व को समग्र भारतदर्शन करवाया! उज्जयिनी नगरी का वर्णन तो एकदम हूबहू, जैसे कोई चलचित्र के समान! इसलिए कई विद्वान मानते हैं कि कालिदासजी का वास्तव्य संभवतः अधिकांश समय के लिए इस ऐश्वर्यसंपन्न नगरी में ही रहा होगा! उनकी रचनाएं भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शनशास्त्र पर आधारित हैं! इनमें तत्कालीन भारतीय जीवन का प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होता है, रघुवंशम् में इतिहास एवं भूगोल के बारे में उनका गहन ज्ञान, निःसंदेह उनकी अपार बुद्धिमत्ता और काव्यप्रतिभा का प्रतीक है, इसमें कोई भी शक नहीं| इस भौगोलिक वर्णन के साथ ही भारत की पौराणिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि और ज्ञान, साथ ही सामान्य तथा विशिष्ट व्यक्तियों का जीवनयापन, इन सबका पर्याप्त दर्शन इस महान कवि की रचनाओंमें पाया जाता है| 

   उनकी काव्य एवं नाटकों की भाषा और काव्यसौंदर्य का वर्णन एकमुख से मैं कैसे बखान करूँ!!! भाषासुंदरी मानों उनकी आज्ञाकारी दासी, अनुचरी, प्राणसखी, प्रणयिनी तथा सहगामिनी ही होगी! प्रकृतिके विभिन्न रूप साकार करने वाला ऋतुसंहार यह काव्य तो प्रकृतिकाव्य का उच्चतम शिखर ही समझिये! उनके अन्य साहित्य में उस उस प्रसंग के अनुसार प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहर वर्णन यानि अद्भुत तथा अद्वितीय इंद्रधनुषी रंगों की छलकती बौछार, हमें तो बस इन रंगों में रंग जाना है, क्योंकि ये सदाबहार रंग हैं कालिदासजी के साहित्य के! हाँ, ये सारी काव्यरचनाएँ छंदों के चौखटों में सहज, सुन्दर और अनायास विराजमान हैं, जबरदस्ती से जानबूझकर बैठाई नहीं गईं! 

     यह अनोखा साहित्य है अलंकारयुक्त तथा नादमयी भाषा का सुरम्य आविष्कार! एक सुंदर स्त्री जब अलंकारमंडित होती है, तब कभी कभी ऐसा प्रश्न मन में उठता है कि, अलंकारों का सौंदर्य उस सौंदर्यवती के कारण वर्धित हुआ है, या उसका सौंदर्य अलंकारोंसमेत सजनेसे और अधिक निखरा है! मित्रों, कालिदासजी के साहित्य का अध्ययन करते हुए यहीं भ्रम निर्माण होता है! इस महान कविराज की सौंदर्य दृष्टि की जितनी ही प्रशंसा की जाए, कम ही होगी! उसमें लबालब भरे अमृतकलशोंसम नवरस तो हैं ही, परन्तु, उनमें विशेषकर है शृंगाररस, जो है रसों का राजा! उसके विविध रूपोंका दर्शन लेना है तो, रसिक मन का होना अनिवार्य है! स्त्री सौंदर्य का लक्षणीय लावण्यमय आविष्कार तो उनके काव्य तथा नाटकों में जगह जगह पाया जाता है! उनकी नायिकाएं ही ऐसी हैं कि, उनका सौंदर्य शायद वर्णनातीत होगा भी कदाचित, परन्तु कालिदासजी जैसा शब्दप्रभू हो तो उनके लिए क्या कुछ असंभव है? परन्तु इस सौंदर्यवर्णन में तत्कालीन आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्योंका कहीं भी पतन नहीं हुआ है! अलंकारोंके जमघट में सबसे प्रमुख आभूषण है उपमालंकार, वे उपमाएं कैसी तो अन्य व्यक्तियों के लिए अनुपमेय! लेकिन जबतक इन महान संस्कृत भाषा की रचनाएं प्राकृत प्रांतीय भाषाओं में जनसामान्य तक पहुँचती नहीं, तबतक इस विश्वात्मक कवि का स्थान अखिल विश्व में शीर्ष होकर भी अपने ही देश में अपरिचित ही रहेगा! अर्थात इस साहित्य का कई भारतीय भाषाओँ में अनुवाद (अनुसृष्टी) हुआ है, यह उपलब्धि भी कम नहीं है! 

मेघदूत (खंडकाव्य)

      खण्डकाव्यों की रत्नपेटिका में विराजित कौस्तुभ मणि जैसे मेघदूत, कालिदासजी की इस रचनाका काव्यानंद यानि स्वर्ग का सुमधुर यक्षगानही समझिये! ऐसा माना जाता है कि महाकवी कालिदासजी ने अपने प्रसिद्ध खंडकाव्य मेघदूत को आषाढ़ मास के प्रथम दिन रामगिरी पर्वतपर (वर्तमान स्थान रामटेक) लिखना प्रारंभ किया! उनके इस काव्य के दूसरे ही श्लोक में तीन शब्द आये हैं, वे हैं “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! आषाढ़ के प्रथम दिन कालिदासजी ने जब आसमान में संचार करनेवाले कृष्णमेघ देखे, तभी उन्होंने अपने अद्भुत कल्पनाविलास का एक काव्य में रूपांतर किया, यहीं है उनकी अनन्य कृति “मेघदूत”! यौवन की सहजसुंदर तारुण्यसुलभ तरल भावना तथा प्रियतमा का विरह, इन प्रकाश और तम के संधिकाल का शब्दबद्ध रूप दृष्टिगोचर होनेपर हमारा मन भावनाविवश हो उठता है| अलका नगरी में यक्षों का प्रमुख, एक यक्ष कुबेर को महादेवजी की पूजा हेतु सुबह ताजे प्रफुल्लित कमलपुष्प देनेका काम रोज करता है| नवपरिणीत पत्नी के साथ समय बिताने हेतु वह यक्ष कमलपुष्पोंको रात्रि में ही तोड़कर रखता है| दूसरे दिन सुबह जब कुबेरजी के पूजा करते समय खिलनेवाले पुष्प में रात्रि को बंदी बना एक भ्रमर कुबेरजी को डंख मारता है| क्रोधायमान हुए कुबेरजी यक्ष को शाप देते हैं| इस कारण उस यक्ष की और उसकी प्रेमिका को अलग होना पड़ता है| इसी शापवाणी से मेघदूत इस अमर खंडकाव्य की निर्मिती हुई| यक्ष को भूमि पर रामगिरी पर १ वर्ष के लिए, अलकानगरीमें रहनेवाली अपनी पत्नीसे दूर रहने की सजा मिलती है| शाप के कारण उसकी सिद्धी का नाश हो जाता है, जिसके कारण वह किसी भी प्रकारसे पत्नी को मिल नहीं पाता| इसी विरहव्यथा का यह “विप्रलंभ शृंगार का काव्य” है| कालिदासजी की कल्पना की उड़ान यानि यह अजरामर, अतिसुंदर ऐसा प्रथम “दूत काव्य” के रूप में रचा गया! फिर रामगिरी से, जहाँ सीताजी के स्नानकुंड हैं, ऐसे पवित्र स्थान से अश्रु भरे नेत्रोंसे यक्ष मेघ को सन्देश देता है! मित्रों, अब देखते हैं वह सुंदर श्लोक! 

तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी,

नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।

आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,

वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।

      अपने प्रिय पत्नी के वियोग से दग्धपीडित और अत्यंत व्यथित रहने के कारण यक्ष के मणिबंध का (कलाई) सुवर्णकंकण, उसके देह के क्षीण होने के कारण शिथिल (ढीला) होकर भूमि पर गिर जाने से, उसका मणिबंध सूना सूना दिख रहा था! आषाढ़ के प्रथम दिन उसको नज़र आया एक कृष्णवर्णी मेघ! वह रामगिरी पर्वत के शिखर को आलिंगनबद्ध कर क्रीडा कर रहा था, मानों एकाध हाथी मिट्टीके टीले की मिटटी उखाड़ने का खेल कर रहा हो|    

    

        प्रिय मित्रों, यहीं है उस श्लोक के मानों काव्यप्रतिभा का तीन अक्षरोंवाला बीजमंत्र “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! इस मंत्र के प्रणेता कालिदासजी के स्मृति को अभिवादन करने हेतु प्रत्येक वर्ष हम आषाढ़ महीने के प्रथम दिन (आषाढ शुक्ल प्रतिपदा) कालिदास दिन मानते हैं| जिस रामगिरी (वर्तमान में रामटेक) पर्वतपर कालिदासजी को यह काव्य रचने की स्फूर्ति मिली, उसी कालिदासजी के स्मारक को लोग भेंट देते हैं, अखिल भारत में इसी दिन कालिदासमहोत्सव मनाया जाता है! प्रिय पाठकों, हमारे लिए गर्व की बात है कि, महाराष्ट्र का प्रथम कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय रामटेक में स्थापित हुआ| इस साल कालिदास दिन था ३० जून को| उस दिन का स्मरण करते हुए तथा कालिदासजी को आदरांजली अर्पण करने हेतु मैंने यह लेख लिखा है! 

     मित्रों, पहले बतायेनुसार यक्ष को आषाढ़ के प्रथम दिन पर्वतशिखरों को लिप्त कर आलिंगन देनेवाला मेघ, क्रीडा करनेवाले दर्शनीय हाथी के सामान दिखा। जिसमें १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ ६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ ५५ श्लोक) संलग्न है, वह सकल खंडकाव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद), मंदाक्रांता वृत्त में (इस वृत्त के प्रणेता हैं, स्वयं कालिदासजी!) गेय काव्य में छंदबद्ध करने की प्रतिभा (और प्रतिमा नहीं परन्तु प्रत्यक्ष में) केवल और केवल कालिदासजी की!       

     यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझ दूत बनाता है, उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है, अपनी प्रियतमा का विरहसे क्षतिग्रस्त शरीर इत्यादि का वर्णन करने के बाद, मेघ को अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की अत्यंत आवेग से बिनती करता है! पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की नगरी तक जाने का मार्ग बताता है, इसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम और रमणीय वर्णन (एक पक्षी को आसमान से दिखे वैसा, bird’s eye view, या अभियांत्रिकी शब्दों में बताना हो तो “टॉप व्ह्यू”) किया गया है| विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का प्रदीर्घ प्रवास इसमें वर्णित किया गया है| राह में प्रकृति के अप्रतिम वर्णन से सजाया संवारा है इस काव्य को! हमें नर्मदा, वेत्रवती नदी, विदिशा नगरी, कदंब वृक्षों से आच्छादित पर्वत, उज्जैन, अवंती नगरी, क्षिप्रा नदी तथा महांकालेश्वर के दर्शन करवाते हुए इस मेघ का प्रवास गंभीरा नदी, हिमालय से जिसका उगम हुआ है, उस जान्हवी (गंगा) नदी और मानस सरोवर तक होता है| अंत में कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में मेघ पहुँचता है| इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युल्लता से हमारी भेंट होती है, पूर्वमेघ में रामगिरी से  अलकापुरी के मार्ग में सरिता तरंगिणी, पर्वतश्रृंखलाएं, वृक्षलताएं, पशु पक्षी, विविध स्वभाव की स्त्रियां, इनके वर्णन करते हुए यह यक्ष निर्जीव वस्तुओं को जीवनदान देकर इस प्रवास के पात्र ही बनाते हुए मेघ को प्रणय का पाठ ही पढ़ाता है!

      उत्तर मेघ में यक्ष ने ने अपनी प्रेयसीको दिया हुआ संदेश है| प्रियतमा विरहव्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है| उसे वह मेघ द्वारा यह संदेश दे रहा है “अब शाप समाप्त होने में केवल चार मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ”| विरहिणी यक्षपत्नी और अपने अलकापुरीके गृह के चलचित्र के समान दर्शन करवाते हुए काव्य के अंतिम श्लोक में यह यक्ष मेघ से कहता है “तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो!” ऐसा है यह यक्ष का विरहगीत|   

     मित्रों! स्टोरी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अरसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय, पोस्टल ऍड्रेस लिखते हैं, अंदर अच्छे बुरे हालचाल की ४ पंक्तियाँ! परन्तु ऍड्रेस एकदम करेक्ट, विस्तृत और अंदर का मैटर रोमँटिक होने के कारण, पोस्ट ऑफिस वालों को भायेगा न, और फिर उस लेखक को पोस्टल डिपार्टमेंट पोस्ट का टिकट छपवाकर सन्मानित करेगा या नहीं! नीचे के फोटो में देखिये पोस्ट का सुन्दर टिकट, यह कालिदासजी के ऍड्रेस लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिये! इस वक्त अगर कालिदासजी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस डिपार्टमेंट के Brand Ambassador रहे होते!

कालिदासजी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु बाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा इसका उसे पूरा विश्वास है! शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा ऐसा यक्ष ने सोचा होगा!

    उस समय पक्षियों का उपयोग संदेशवाहक के रूप में संभवतः किया जाता होगा! परन्तु यहाँ रचनाकार हैं एकमेकाद्वितीय कवि कालिदासजी! उनकी भावानुभूति और परिष्कृति असामान्य, अनुपमेय, अपरिचित और अनोखी होगी ही! इसीलिये फिर शब्दों तथा सुरों की बरसात होती है राग “मेघमल्हार” में! आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा मेघ होता है संदेशदूत! पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही शॉर्ट अँड स्वीट स्टोरी, परन्तु कालिदासजी के परीसस्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया! रामगिरी से अलकानगरी, बीच में हॉल्ट उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदासजी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौनसे माईल स्टोन्स आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, no confusion!) दुःख में विव्हल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है! इसके बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्योंकी मानों फॅशन ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती का आख्यान), परन्तु मेघदूत शीर्ष स्थान पर ही रहा, उसकी बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया! प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का रूप, पाठकों को यक्ष की विरहव्यथा में व्याकुल करने वाला ही नहीं, बल्कि अपनी काव्यप्रतिभा से मंत्रमुग्ध करने वाला यह काव्य “मेघदूत!’ इसीलिये आषाढ मास के प्रथम दिन इस काव्य का तथा उसके रचयिता का स्मरण करना अपरिहार्य ही है! 

     प्रिय पाठकगण, अब कालिदासजी की महान सप्त रचनांओंका अत्यल्प परिचय देना चाहूंगी! इस साहित्य में ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूत ये काव्यरचनाएँ हैं, वैसे ही मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् ये तीन संस्कृत नाटक-महाकाव्य हैं!  

    आचार्य विश्‍वनाथ कहते हैं “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात रसयुक्त वाक्य यानि काव्य!

कालिदासजी की काव्यरचनाऐं हैं केवल चार! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)

रघुवंशम् (महाकाव्य)

      यह महाकाव्य कालिदासजी की सर्वोत्कृष्ट काव्यरचना मानी जाती है! इसमें १९ सर्ग हैं, सूर्यवंशी राजाओं की दैदिप्यमान वंशावली का इसमें तेजस्वी वर्णन है| इस वंश के अनेक नायकों के चरित्र इस महाकाव्य में चित्रित किये गए हैं! सूर्यवंशी राजा दिलीप से लेकर श्रीराम और उनके वंशज इस काव्य के अनेक नायक हैं| पहले ९ सर्गों में श्रीराम के चार महान पूर्वज, दिलीप, रघु, अज और दशरथ के वर्णन हैं, उसके पश्चात् १० से १५ ऐसे ६ सर्गोंमें रामचंद्र का जीवनवर्णन है| १६ से से १८ वे सर्ग में श्रीराम के वंशजोंका चित्रण है| १९ वे सर्ग में कामुक और विलासी अग्निवर्ण का वर्णन है, तथा उसकी मृत्यु के साथ इस काव्य का अंत होता है| रघुवंश यानि आदर्शों की मानों वैजयंतीमाला ही है! इन राजाओं की पराक्रमी, दानशूर, प्रजापरायण और कीर्तिमान महत्ता का वर्णन अत्यंत उदात्त है| शीर्षस्थानपर अर्थात, रघुवंश की तेजोमय पताका सीधे लंका तक लेकर जानेवाले आदर्शों के आदर्श, इस वंश को यशोशिखर पर आस्थापित करनेवाले, यत्र, तत्र, सर्वत्र पूजनीय ऐसे राघव! मित्रों,यह विलक्षण अनुभूति अनुभव करनी चाहिए इस काव्यरंग में सम्पूर्णतः समाहित होकर ही!

कुमारसंभवम्  (महाकाव्य)

     यह कालिदासजी का प्रसिद्ध महाकाव्य है! इसमें शिवपार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म और उसके द्वारा तारकासुर का वध ये प्रमुख कथाएं हैं| इस महाकाव्य में सकल १७ सर्ग हैं| परन्तु कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि, इनमें केवल ८ प्रमाण सर्ग कालिदासजी के हैं और अन्य को बाद में जोड़ा गया है| उदात्त, सुरम्य, कोमल, भावनावश भावनिवेश, स्वाभाविक और तरल कल्पनाविलास, कोमलकान्ति पद्यरचना, सहज सुंदर शोभायमान काव्यालंकार, प्रकृति का चलचित्र के समान रमणीय चित्रण, ये हैं इस महाकाव्य के गुणविशेष! इसमें है शिवजी की घोर तपस्या, शिवपार्वतीका संयोग और वियोग! इस महाकाव्य में कवि ने लिखा है, “विश्व का संपूर्ण सौंदर्य माता पार्वती में समाया है!” अत्यंत संक्षेप में बताना हो तो “कुमारसंभव” यह कालिदासजी की उत्कृष्ट काव्यात्मक अभिव्यक्ति है!

मेघदूत (खंडकाव्य)

     इस दूतकाव्य के विषय में मैं पहले ही विस्तार से लिख चुकी हूँ|    

ऋतुसंहार (खंडकाव्य)

    यह कालिदासजी की सर्वप्रथम रचना है| इस गेयकाव्य में ६ सर्ग हैं, जिनमें षडऋतुओंका (ग्रीष्म, वर्षा, शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत) वर्णन है| इस काव्य में कालिदासजी की भारतीय प्राच्यविज्ञान (oriental science), जलवायु, वनस्पति विज्ञान व वृक्षायुर्वेद जैसे विभिन्न विषयों में निपुणता जान पड़ती है| शृंगाररस से ओतप्रोत अलंकारिक भाषा से अलंकृत यह काव्य यानि ऋतुओंका केवल औपचारिक वर्णन नहीं, बल्कि प्रत्येक ऋतु के अनुसार बदलनेवाले शृंगार के विविध रंग तथा मानवीय भावनाओं के मृदुल और तरल संवेदनाओं से जीवंत किया हुआ रसपूर्ण और रमणीय चित्रण ही समझिये! 

कालिदासजी की नाट्यरचनाएं हैं केवल तीन! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)      अभिज्ञानशाकुन्तलम्  (नाटक)

     इस नाटक के बारे में क्या कहा गया है देखिये, “काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला” (कविताके विविध रूपों में अगर कोई नाटक होगा, तो नाटकों में सबसे अनुपमेय रम्य नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्) महाकवी कालिदासजी का यह नाटक सर्वपरिचित और सुप्रसिद्ध है| यह नाटक महाभारतके आदिपर्व में वर्णित शकुंतला के जीवनपर आधारित है| संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्!

विक्रमोर्यवशियम् (नाटक)

     महान कवी कालिदासजी का यह एक रोमांचक, रहस्यमय और रोमांचकारी कथानक वाला ५ अंकों का नाटक है! अंतिम क्षण तक प्रेक्षकोंको बांधकर और बंधे रहने के लिए विवश करने वाले इस नाटक का कथानक आधारित है एक प्रसिद्ध पौराणिक प्रेमकथा पर| इसमें कालिदासजी ने राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमसम्बन्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है| अत्यंत मार्मिक, रोमहर्षक और प्रेमभावना की कोमल अभिव्यक्ति से ओतप्रोत या नाटक पाठकोंको अतिप्रिय ऐसा ही है!

मालविकाग्निमित्र  (नाटक)

    कवी कालिदासजी का मालविकाग्निमित्र यह नाटक उसकी अनूठी रचनापद्धति के लिए प्रसिद्ध हुआ! शुंगवंशका संस्थापक राजा पुष्यमित्र, उसका पुत्र है राजा अग्निमित्र! यह नाटक इसी अग्निमित्र की प्रेमकथा पर आधारित है| अग्निमित्र यह है राजा, और उसे प्रेम हो जाता है एक सेवक की कन्या से अर्थात मालविका से ! कालिदासजी की इस प्रथम नाट्यकृति में इन दोनों के प्रणय का सुंदर वर्णन है| विद्वानों का मानना है कि, इसमें नाटककार का काव्यकौशल तनिक कम ही है| परन्तु मित्रों, ध्यान रहे कि, ये सब तुलनाएं कालिदासजी के ही अन्य नाटकों के साथ की गई हैं, दूसरा कोई भी इस स्पर्धा में है ही नहीं!

     प्रिय पाठकगण, महाकवी कालिदासजी का रोमहर्षक जीवन, साथ ही उनके अन्य साहित्य के बारे में और अन्य चीजों के बारे में अगले भागों में लिखूंगी! मेरे इन काव्यलहरियों को लाने तक आप सब आषाढ़ एवं सावन की फुहारों का दिल से मज़ा लें!

प्रणाम और धन्यवाद!

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव 28-7-2022

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के आत्मानुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| इस ब्लॉग की कोई भी सामग्री कॉपी न करें| 

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ, उन्हें सुनकर और देखकर आपका आनंद द्विगुणित होगा ऐसी आशा करती हूँ!

“आषाढस्य प्रथम दिवसे”- प्रहर वोरा, आलाप देसाई “सूर वर्षा”

रचनाकार महाकवी कालिदास 

“जा रे बदरा बैरी जा रे जा रे” फिल्म “बहाना”

गायिका: लता मंगेशकर, गीतकार: राजिन्दर कृष्ण, संगीतकार: मदनमोहन

“ऋतु आए ऋतु जाए सखी री, मन के मीत न आए” फिल्म- “हमदर्द”

गायक: मन्ना डे और लता मंगेशकर, गीतकार: प्रेमधवन, संगीतकार: अनिल बिस्वास

(चार अंतरेवाला यह अप्रतिम गाना चार रागोंपर आधारित है, इस रागमालिका की विस्तृत जानकारी विडिओ के निचले भाग में दी है)   

“ऊठ शंकरा सोड समाधी” चित्रपट: “पडछाया”

गायिका: कृष्णा कल्ले, गीतकार: ग. दि. माडगूळकर, संगीतकार: दत्ता डावजेकर 

*** इस प्रस्तुति में सादर किये हुए फोटो, वीडियो तथा गानों की लिंक को केवल अभ्यास हेतु ही जोड़ा गया है|